गाय और उनकी नस्ल

भारतीय गाय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

पहले वर्ग : इसमें वे गाएँ आती हैं जो दूध तो खूब देती हैं, लेकिन उनकी संतान कृषि में अनुपयोगी होती है।

दूसरे वर्ग  :इसमें वे गाएँ आती हैं जो दूध कम देती हैं किंतु उनके बछड़े कृषि और गाड़ी खींचने के काम आते हैं।

तीसरे वर्ग :कुछ गाएँ दूध भी प्रचुर देती हैं और उनके बछड़े भी कर्मठ होते हैं। ऐसी गायों को सर्वांगी नस्ल की गाय कहते हैं।

गौ जातियाँ निम्नलिखित हैं: रेड सिन्धी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारक ,भगनाड़ी ,दज्जल ,गावलाव ,हरियाना ,अंगोल या नीलोर अन्य प्रमुख गाय आदि

भारत में गायों की लगभग 30 प्रकार कि नस्लें पाई जाती हैं।

गाय और उनका प्राप्तिस्थान

मालवी :ये गायें दुधारू नहीं होतीं। इनका रंग खाकी होता है तथा गर्दन कुछ काली होती है। अवस्था बढ़ने पर रंग सफेद हो जाता है। ये ग्वालियर के आस-पास पाई जाती हैं।

नागौरी :इनका प्राप्तिस्थान जोधपुर के आस-पास का प्रदेश है। ये गायें भी विशेष दुधारू नहीं होतीं, किंतु ब्याने के बाद बहुत दिनों तक थोड़ा-थोड़ा दूध देती रहती हैं।

थरपारकर :ये गायें दुधारू होती हैं। इनका रंग खाकी, भूरा, या सफेद होता है। कच्छ, जैसलमेर, जोधपुर और सिंध का दक्षिणपश्चिमी रेगिस्तान इनका प्राप्तिस्थान है। इनकी खुराक कम होती है।

पवाँर: पीलीभीत, पूरनपुर तहसील और खीरी इनका स्थान है। इनका मुँह सँकरा और सींग सीधी तथा लंबी होती है। सींगों की लबाई १२-१८ इंच होती है। इनकी पूँछ लंबी होती है। ये स्वभाव से क्रोधी होती है और दूध कम देती हैं।

भगनाड़ी : नाड़ी नदी का तटवर्ती प्रदेश इनका स्थान है। ज्वार इनका प्रिय भोजन है। नाड़ी घास और उसकी रोटी बनाकर भी इन्हें खिलाई जाती है। ये गायें दूध खूब देती हैं।

दज्जल :पंजाब के डेरागाजीखाँ जिले में पाई जाती हैं। ये दूध कम देती हैं।

गावलाव :दूध साधारण मात्रा में देती है। प्राप्तिस्थान सतपुड़ा की तराई, वर्धा, छिंदवाड़ा, नागपुर, सिवनी तथा बहियर है। इनका रंग सफेद और कद मझोला होता है। ये कान उठाकर चलती हैं।

हरियाना :ये 8-12 लीटर दूध प्रतिदिन देती हैं। गायों का रंग सफेद, मोतिया या हल्का भूरा होता हैं। ये ऊँचे कद और गठीले बदन की होती हैं तथा सिर उठाकर चलती हैं। इनका स्थान रोहतक, हिसार, सिरसा, करनाल, गुडगाँव और जिंद है।

करन फ्राइ :   करण फ्राइ का विकास राजस्थान में पाई जाने वाली थारपारकर नस्ल की गाय को होल्स्टीन फ्रीज़ियन नस्ल के सांड के द्वारा किया गया।  थारपारकर गाय की दुग्ध उत्पाद औसत होता है. गर्म और आर्द्र जलवायु को सहन करने की क्षमता के कारण वे महत्वपूर्ण होती हैं।

नस्ल के गुण  : करन फ्राइ गायें बहुत ही सीधी होती हैं। इसके मादा बच्चे नर बच्चों की तुलना में जल्दी वयस्क होते हैं और 32-34 महीने की उम्र में ही गर्भधारण की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं।गर्भावधि 280 दिनों का होता  है। एक बार बच्चे देने के बाद 3-4 महीनों में यह पुन: गर्भधारण कर सकती है। अतः यह स्थानीय नस्ल की गायों की तुलना में अधिक लाभकारी सिद्ध होती हैं क्योंकि वे प्राय: बच्चे देने के 5-6 महीने बाद ही दुबारा गर्भधारण कर सकती हैं।बछड़े की कीमत : तुरंत ब्यायी हुई गाय की कीमत दूध देने की इसकी क्षमता के अनुसार 20,000 रुपये से 25,000 रुपए तक हो सकती है।

दुग्ध उत्पादन : करन फ्राइ नस्ल की गायें साल भर में लगभग 3000 से 3400 लीटर तक दूध देने की क्षमता रखती हैं।उच्च दुग्ध उत्पादन क्षमता के कारण ऐसी गायों में थन का संक्रमण अधिक होता है और साथ ही उनमें खनिज पदार्थों की भी कमी पाई जाती है। समय पर पता चल जाने से ऐसे संक्रमणों का इलाज आसानी से हो जाता है।

संस्थान के फार्म में इन गायों की औसत दुग्ध उत्पादन क्षमता 3700 लीटर होती है, जिसमें वसा की मात्रा 4.2% होती है। इनके दूध उत्पादन की अवधि साल में 320 दिन की होती है।

अच्छी तरह और पर्याप्त मात्रा में हरा चारा और संतुलित सांद्र मिश्रित आहार उपलब्ध होने पर इस नस्ल की गायें प्रतिदिन 15-20 लीटर दूध देती हैं। दूध का उत्पादन बच्चे देने के 3-4 महीने की अवधि के दौरान प्रतिदिन 25-30 लीटर तक होता है।

अन्य राठ अलवर की गाएँ हैं। खाती कम और दूध खूब देती हैं।

गीर- ये प्रतिदिन 50-80 लीटर दूध देती हैं। इनका मूलस्थान काठियावाड़ का गीर जंगल है।

देवनी - दक्षिण आंध्र प्रदेश और हिंसोल में पाई जाती हैं। ये दूध खूब देती है।

नीमाड़ी - नर्मदा नदी की घाटी इनका प्राप्तिस्थान है। ये गाएँ दुधारू होती हैं।सायवाल जाति :सायवाल गायों में अफगानिस्तानी तथा गीर जाति का रक्त पाया जाता है। इन गायों का सिर चौड़ा, सींग छोटी और मोटी, तथा माथा मझोला होता है। ये पंजाब में मांटगुमरी जिला और रावी नदी के आसपास के स्थानों में पाई जाती है। ये भारत में कहीं भी रह सकती हैं। एक बार ब्याने पर ये 10 महीने तक दूध देती रहती हैं। दूध का परिमाण प्रति दिन 10-16 लीटर होता है। इनके दूध में मक्खन का अंश पर्याप्त होता है।

सिंधी : इनका मुख्य स्थान सिंध का कोहिस्तान क्षेत्र है। बिलोचिस्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लिए प्रसिद्ध है। इन गायों का वर्ण बादामी या गेहुँआ, शरीर लंबा और चमड़ा मोटा होता है। ये दूसरी जलवायु में भी रह सकती हैं तथा इनमें रोगों से लड़ने की अद्भुत शक्ति होती है। संतानोत्पत्ति के बाद ये 300 दिन के भीतर कम से कम 2000 लीटर दूध देती हैं।

काँकरेज :कच्छ की छोटी खाड़ी से दक्षिण-पूर्व का भूभाग, अर्थात् सिंध के दक्षिण-पश्चिम से अहमदाबाद और रधनपुरा तक का प्रदेश, काँकरेज गायों का मूलस्थान है। वैसे ये काठियावाड़, बड़ोदा और सूरत में भी मिलती हैं। ये सर्वांगी जाति की गाए हैं और इनकी माँग विदेशों में भी है। इनका रंग रुपहला भूरा, लोहिया भूरा या काला होता है। टाँगों में काले चिह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग काले होते हैं। ये सिर उठाकर लंबे और सम कदम रखती हैं। चलते समय टाँगों को छोड़कर शेष शरीर निष्क्रिय प्रतीत होता है जिससे इनकी चाल अटपटी मालूम पड़ती है।