मनुष्य तभी जब वह अहिंसा आदि गुणों का पूर्णतया पालन करें’

योगदर्शन महर्षि पतंजलि की मनष्यों को बहुत बड़ी देन है जो मनुष्यों को मनुष्य बनाने का प्रमुख साधन है। योगदर्शन का उद्देश्य मनुष्यों को सुसंस्कारित कर उसे समाधि अवस्था तक पहुंचाना और ईश्वर का साक्षात्कार कराना है। समाधि में ही ईश्वर का साक्षात्कार सम्भव है वा होता है। समाधि में ईश्वर  साक्षात्कार से विवेक उत्पन्न होता है और यही मनुष्यों के जीवन से दुःखों की पूर्णतः निवृति कराकर ईश्वर के सान्निध्य में पहुंचाता है। इसके बाद मनुष्य जब तक जीवित रहता है जीवनमुक्त कहलाता है और मृत्यु होने के पश्चात अनादि जीवात्मा मोक्ष प्राप्त करता है जो दुःखों से सर्वथा रहित अतिशय सुख की अवस्था होती है। इस मोक्ष अवस्था को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। समाधि तक तक पहुंचने के लिए मनुष्यों को अष्टांग योग का पालन करना होता है जिसमें प्रथम सोपान व सीढ़ी पांच यम हैं। पांच यम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह को कहते हैं। इसी प्रकार से योग का दूसरा सोपान है 5 नियम जिसमें शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान सम्मिलित हैं। इन सब का पालन करने से मनुष्य पशु से मनुष्य बनता है और योग में प्रविष्ट होता है। इसके विपरीत मनुष्य शरीर की आकृति मात्र से ही मनुष्य होता है गुण-कर्म-स्वभाव से नहीं। यम व नियम के बाद आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास करना होता है। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में योग को पूर्णरूपेण सिद्ध किया था। वह जीवन-मुक्त पुरुष व सम्प्रज्ञात व असम्प्रज्ञात समाधि को सिद्ध किए हुए सच्चे योगी थे जिनका मृत्यु होने पर मोक्ष होना सम्भावित है। 

    ईश्वर ने मनुष्य को ऐसा बनाया है कि यह दुःखों व मृत्यु आदि से डरता है और इनसे बचने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है। अन्य सभी प्राणी भी ऐसा ही करते हैं। दुःख अप्रिय स्थिति को कहते हैं और सुख वह अवस्था होती है जिसमें मनुष्य अनुकूलता का अनुभव करता है। मनुष्य को कोई व्यक्ति यदि मारे, पीटे, अंग-भंग करे व उसका गला काट कर मार डाले तो उसके लिए यह प्रतिकूल स्थितियां होती हैं। वह इनसे बचने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है। अब यदि उसे यह बातें अपने लिए पसन्द नहीं और वह दूसरों के प्रति यह व्यवहार करे, उन्हें पीड़ा दे, उनकी हत्या इस कारण करें कि उनका मांस खाना है, तो क्या उसे कोई उचित व मनुष्योचित व्यवहार कह व मान सकता है। कदापि कदापि नही। ऐसा मनुष्य मनुष्य नहीं अपितु उसका यह व्यवहार पशुओं से भी गया गुजरा कहा जायेगा। ऐसी ही शास्त्रों की सम्मति व मान्यता है जो उसके नियमों व शिक्षाओं का अध्ययन करने पर ज्ञात होती हैं। वैदिक शास्त्रों में अशुभ कर्मों वा अनुचित कार्यों व कामों को अधर्म व पाप कहा गया है जिसका फल ईश्वर दण्ड व दुःख के रूप में अपराधी मनुष्य को देता है। ईश्वर ने सत्य शास्त्र वेदों में कहीं किसी पशु की हत्या करने व उसका मांस खाने की शिक्षा व आज्ञा नहीं दी है अपितु पशुओं को मारने का निषेध किया है। अतः जीभ के स्वाद व किसी औचीत्य रहित कारण से पशु हत्या करना घोर क्रूरतम कृत्य है। यह अमानवीय होने के साथ महा अधर्म व महापाप भी होता है। ऐसा कर्म हममें से व संसार का अन्य कोई मनुष्य करे तो वह सम्मान व प्रतिष्ठा के योग्य न होकर दण्डनीय व तिरस्कार के योग्य होता है। अतः सभी मनुष्यों को अपने सभी काम मनुष्यता पर विचार कर करने चाहियें। जो किसी भी कारण से किसी भी रूप में मूक पशुओं व मनुष्यों के प्रति हिंसा के कार्य कर रहे हैं उन्हें यह कार्य तत्काल बन्द कर देनें चाहियें अन्यथा परजन्म में उन्हें इसी प्रकार की शारीरिक व मानसिक पीड़ओं से गुजरना होगा और ब्याज व सूद सहित अपने इस जन्म के अमानवीय कृत्यों की पूर्ति करनी होगी। 

    महर्षि दयानन्द जी ने गोकरूणानिधि नाम से एक लघु पुस्तक लिखी है। गोरक्षा हेतु लिखी इस पुस्तक में गोहत्या के विरुद्ध वह जो तथ्य, तर्क व युक्तियां इस पुस्तक में देते हैं वह सभी तर्क व युक्तियां मांसाहार हेतु गाय, बैल, भैंस, भैंसा, बकरी, भेड़, मुर्गी व मुर्गे की हत्याओं पर भी लागू होती हैं। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने अपने जीवनकाल में गोरक्षा वा पशु रक्षा का सबसे बड़ा व इतिहास में सबसे पहले सत्याग्रह किया था। उन्होंने सारे देश से लगभग 2 करोड़ लोगों के हस्ताक्षर कराकर उन्हें तत्कालीन भारत उपनिवेश की महारानी विक्टोरियां को भेजने की योजना बनाई थी। यह कार्य वह बहुत जोर-शोर से कर व करवा रहे थे। इन हस्ताक्षरों से युक्त जो मेमोरण्डम उन्होंने इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया को भेजने हेतु तैयार किया था उसका प्रारूप हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्होंने मेमोरेण्डम में लिखा था कि ऐसा कौन मनुष्य जगत में है जो सुख के लाभ में प्रसन्न और दुःख की प्राप्ति में अप्रसन्न न होता हो। जैसे दूसरों के लिये अपने उपकार में स्वयम् आनन्दित होता है ऐसे ही परोपकार करने में सुखी अवश्य होना चाहिये। क्या ऐसा कोई भी विद्वान भूगोल में था, है और होगा, जो परोपकार रूप धर्म और परहानि स्वरूप अधर्म के सिवाय धर्म और अधर्म की सिद्धि कर सके। धन्य वह महाशयजन हैं जो अपने तन, मन और धन से संसार का उपकार सिद्ध करते हैं। दूसरे पुरुष वे हैं जो अपनी अज्ञानता से स्वार्थवश होकर अपने तन, मन और धन से जगत् में परहानि करके बड़े लाभ का नाश करते हैं। महर्षि दयानन्द आगे लिाते हैं कि सृष्टिक्रम में ठीक-ठीक यही निश्चय होता है कि परमेश्वर ने जो जो वस्तुएं बनाई हैं वह पूर्ण उपकार के लिये हैं, अल्पलाभ से महाहानि करने के अर्थ नहीं। विश्व में दो ही जीवन के मूल हैं-एक अन्न और दूसरा पान। इसी अभिप्राय से आर्यवर शिरोमणि राजे महाराजे और प्रजाजन महोपकारक गाय आदि पशुओं (भैंस, भेंड़, बकरी, मुर्गी व मुर्गा आदि समस्त पशु व पक्षियों) को न आप मारते थे और न किसी को मारने देते थे। अब भी इस गाय, बैल, भैंस आदि को मारने और मरवाने देना नहीं चाहते है, क्योंकि अन्न और पान की आवश्यकतानुसार प्राप्ति इनकी वृद्धि व सुलभता से ही होती है। इससे सब का जीवन सुखी हो सकता है। जितना राजा और प्रजा का बड़ा नुकसान इनके मारने और मरवाने से होता है, उतना अन्य किसी कर्म से नहीं। इस का निर्णय उनकी बनाई ‘गोकरुणानिधि’ पुस्तक में अच्छे प्रकार से प्रकट कर दिया है, अर्थात् एक गाय के मारने और मरवाने से चार लाख बीस हजार मनुष्यों के सुख की हानि होती है। इसलिए हम सब लोग प्रजा की हितैषिणी श्रीमती-राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया की न्याय प्रणाली में जो यह अन्याय रूप बड़े बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या होती है, इसको इनके राज्य में से छुड़वाके अति प्रसन्न होना चाहते हैं। तीसरे व अन्तिम पैरा में महर्षि दयानन्द ने कुछ और दलीलें दे कर महारानी विक्टोरिया और भारत के गवर्नर जनरल साहब बहादुर से गाय आदि सभी उपकारक पशुओं की हत्या पर रोक लगाने की मांग की थी। गोकरुणानिधि पुस्तक पूरी ही पढ़ने योग्य है। इसे धर्म, जाति व मजहब से ऊपर उठकर प्रत्येक मनुष्य को पढ़ना चाहिये जिससे उसे मनुष्यता व पशुता के जीवन का अन्तर व ज्ञान हो सके। 

    आर्यजगत के शीर्षस्थ विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी ने लिखा है कि गोमाता के वध पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षर कराकर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को प्रतिवेदन करते हुए ऋषि दयानन्द जी ने कहा था कि बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या करना महापाप है, इसको बन्द करने से भारत देश फिर समृद्धिशाली हो सकता है। गाय हमारे सुखों का स्रोत है, निर्धन का जीवन और धनवान् का सौभाग्य है। भारत देश की खुशहाली के लिए यह रीढ़ की हड्डी है। हमारा देश सन् 1947 में आजाद हो चुका है। यह कितने दुःख की बात है कि हमारे देश के शासकों ने भी गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगाया। आज भी देश में गोहत्या जारी है। गो की हत्या करने के लिए सरकार ने कत्लखाने बनाने व गोमांस का आयात करने की अनुमति दी हुई है। हमारी सरकारो को गोभक्षकों की चिन्ता है परन्तु गोरक्षकों की भावनाओं व अधिकारों की किंचित भी चिंता नहीं है। उनको गोभक्षकों के मत व धर्म का तो ध्यान है परन्तु वैदिक सनातन धर्म व उसकी भावनाओं का बिलकुल भी ध्यान व चिन्ता नहीं है जबकि गोरक्षा से आर्थिक समृद्धि सुनिश्चित है। आज देश के बच्चे व नई युवा पीढ़ी गोहत्या के कारण अमृतमय गोदुग्ध से वंचित हो गयी है। इसका लिए कौन उत्तरदायी है? हम समझते हैं कि इसका उत्तर हर गोप्रेमी जानता है। 

    जब भी किसी निर्दोष मूक पशु की हत्या मांसाहार के लिए की जाती है तो निश्चय ही उसमें पशु हिंसा होती है। हम इस हिंसक कार्य को करने व कराने वालों को अहिंसा की भावनाओं से विरत होने के कारण सहिष्णु व दयावान मनुष्य तो कदापि नहीं कह सकते। पशुओं की हिंसा का होना दयालुता व करूणा के मानवीय स्वभाव के विपरीत है और कू्ररता का कार्य है जो आजकल शिक्षित लोग करते व कराते एवं उसका समर्थन करते हैं। हमारी इतनी शक्ति नहीं की हम इस वीभत्स कार्य को रूकवा पायें। अतः हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं जो महर्षि दयानन्द ने की है कि ‘हे महाराजाधिराज जगदीश्वर ! जो इन पशुओं को कोई न बचावे तो आप उनकी रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हूजिए।‘ इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं और पाठकों से विनम्र अनुरोध करते हैं कि वह गोकरुणानिधि पुस्तक पढ़े और अपने कर्तव्य का निर्घारण करें। हमें प्रधानमंत्री जी से बहुत आशायें हैं। हमें आशा है कि निकट भविष्य में इस समस्या पर ध्यान देंगे। सभी धर्मगुरुओं को भी गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध के लिए आगे आना चाहिये जो कि उनका नैतिक कर्तव्य व धर्म है। 
 -मनमोहन कुमार आर्य