गोवंश और गोभक्तों के महान बलिदान का विवरण,भाग-2
गतांक से आगे....
मालेर कोटला का महाबलिदान
पंजाब के मालेर कोटला में चलाये जा रहे बूचड़खाने को ध्वस्त करने 140 नामधारी सिख गोभक्त 15 जनवरी 1872 को वहां पहुंच गये जो अपने लक्ष्य में सफल रहे। इनमें से 80 सिख वीरों को बिना मुकदमा चलाये तोपों से 14 से 17 जनवरी 1872 तक उड़ा दिया गया। गोरक्षा के लिए 19वीं शताब्दी में नामधारी गोभक्तों ने सबसे महान बलिदान किया। इन वीर हुतात्माओं को शत-शत नमन। इन सबके प्रेरम सदगुरू रामसिंह जी को भी अंग्रेज शासन ने पकडक़र रंगून जेल में भेज दिया। जहां उन्हें भी फांसी दी गयी। पंजाब में जब महाराजा रणजीत सिंह और उनके पुत्र दिलीप सिंह का शासन था (1800 से 1848) तब गोहत्यारों को प्राणदण्ड देने की व्यवस्था थी।
कटारपुर के बलिदानी गोभक्त
सन 1918 की घटना है। हरिद्वार के निकट कटारपुर ग्राम बकरीद के दिन मुसलमानों ने गोहत्या की घोषणा की। ज्वालापुर में तब थानेदार एक मुसलमान था। काटने के लिए गायों का जुलूस जाते देख हिंदू गोभक्तों ने भीषण संघर्ष किया और गायों को छुड़ाने में सफलता प्राप्त की। इस संघर्ष में कुछ गोहत्यारे भी मारे गये। हनुमान मंदिर के महंत रामपुरन्ी के नेतृत्व में हिंदुओं ने डटकर गोहत्यारों से संघर्ष किया। बाद में अंग्रेज सरकार ने हिंदुओं पर मुकदमे चलाकर 135 गोभक्तों को काले पानी कादण्ड दिया तथा चार गोभक्तों को फांसी पर लटकाया गया। कटारपुरन् में अब भी प्रतिवर्ष इन गोभक्तों की पावन स्मृति में कार्यक्रम किया जाता है।
7 नवंबर 1966 को गोभक्तों का बलिदान
देश के लगभग सभी प्रदेशों से दस लाख गोभक्त भारत की संसद के सामने 7 नवंबर 1966 को विराट प्रदर्शन के लिए इस आशा और विश्वास के साथ एकत्र हुए थे कि केन्द्र सरकार हिंदू जनभावनाओं का महत्व समझेगी और गोहत्या निषेध कानून अवश्य पारित कर देगी। परंतु इन लाखों गोभक्तों के साथ जो अमानुषिक व्यवहार पुलिस द्वारा किया गया उससे तो जलियांवाला बाग का नरसंहार और चंगेज खां व नादिरशाह के अत्याचारों की दुर्दांत कहानी भी धूमिल पड़ गयी। कुछ प्रत्यक्षदर्शी महानुभावों की लेखनी ने इस व्यथा को जिस प्रकार प्रकट किया वह सभी के लिए पठनीय है-
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंद जी महाराज-मैंने अपनी आंखों से देखा कि साधुओं को उठा-उठाकर खड़ा करके गोलियां मारी जा रही थीं। कितनी महिलाओं और बच्चों का पता ही नही चला। भागती हुई जनता के पैरों में पिसकर असंख्य बच्चे चटनी बन गये। मैंने देखा कि पुलिस वाले मृतकों के साथ जीवितों को भी ट्रकों में भरते जा रहे थे। घायलों के मना करने पर भी उन्हें मारपीटकर मृतकों के साथ डालकर ले जा रहे थे।
स्वामी गवानंद हरि-पटेल चौक की ओर से पुलिस गाडिय़ां चलाती आ रही थी। पार्लियामेंट स्ट्रीट खून से लथपथ होती जा रही थी। अनेक लोगों के कराहने की आवाज आ रही थी। भीड़ को पीछे हटाने के लिए पुलिस के घोड़ों से उसे रौंदा जा रहा था।
आर्यनेता श्री रामगोपाल शाल वाले-7 नवंबर 1966 का दिन राजधानी दिल्ली और देश के काले इतिहास में सर्वाधिक भयावह रहेगा। इस दिन जैसा प्रदर्शन राजधानी में इससे पूर्व कभी न देखा था। गोभक्तों पर पुलिस ने 209 राउण्ड गोलियां छोड़ीं। प्रदर्शनकारियों के स्कूटर व गाडिय़ों मुख्यरूप से लक्ष्य बनाये गये। इरविन अस्पताल के डाक्टरों ने बताया कि गोलियों के घावों की जांच पड़ताल से यह स्पष्ट हो गया कि मारने के इरादे से ही गोलियां छोड़ी गयी थीं न कि जख्मी करने या तितर-बितर करने के लिए। पूरी शंकरनजचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ जी के अनुमान के अनुसार लगभग तीन सौ गोभक्त पुलिस द्वारा मारे गये।
आर्य समाज के लगभग 1100 जत्थे दीवान हाल से आए थे। सरकार सत्याग्रह की गति और उसके बोझ से परेशान होकर बौखला उठी थी। सांय तीन बजे से 48 घंटे का कफ्र्य लगाया गया जिसका उद्देश्य लाशों को अवैध रूप से ठिकाने लगाने का था। हजारों गोभक्त गिरफ्तार कर लिये गये और तिहाड़ जेल भेजे गये। जेल में गोभक्तों पर कैदियों द्वारा बर्बर आक्रमण भी कराये गये।
तपोमूर्ति स्वामी ओंकारानंद महाराज-मैं मध्य प्रदेश हारदा-होशंगाबाद से तीन सौ गोभक्तों के साथ 6 नवंबर को दिल्ली पहुंच गया था। 7 नवंबर के जुलूस में हम सभी श्रद्घापूर्वक सम्मिलित हुए। इस विराट गोरक्षा प्रदर्शन की कुछ आंखों देखी घटनाओं का उल्लेख करके मैं सरकारी षडयंत्रों से देशवासियों को अवगत कराना आवश्यक समझता हूं। दिनेश चंद्र त्यागी