गाय सम्पूर्ण राष्ट्र और विश्व की माता है
गाय सम्पूर्ण राष्ट्र और विश्व की माता है।
गो सेवा से राष्ट्र की सुरक्षा एवं सुख-सम्पन्नता सम्भव है। इतिहास साक्षी है कि जब तक भारत में गो सेवा रही, तब तक यह भारत भूमि सुरक्षित एवं सुख सम्पन्न बनी रही। त्रेतायुग में श्रीराम जी ने गो सेवा की प्रेरणा दी। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी लाखों गाय दान में देते थे। द्वापर युग में वह गोपाल बने, बाल्याकाल की अवस्था से ही गायों की सेवा करने लगे, गायों को जंगल में चराने ले जाते और संध्या काल उनके नाम पुकार-पुकारकर उन्हें एकत्र कर गोकुल लाते। वेद, पुराण, स्मृतिमें गो-सेवा पर विस्तृत व्याख्या की गई है। सभी ॠषि-मुनियों, सन्तों, राजा-महाराजाओं ने गो-सेवा की है। गौ का अध्यात्मिक महत्त्व तो है ही, आर्थिक दृष्टि(drashti) से भी महत्वपूर्ण है और इससे प्राप्त दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोमय (गोबर) स्वाथ्यवर्धक रहे हैं। आज बिडम्बना है कि अघ्न्या(अवध्य) कही जाने वाली गौ की हत्या निजी स्वार्थ से प्रारम्भ हुई और आज इसने विनाश का प्रचण्ड रुप धारण कर लिया है।गायों का संवर्धन और संरक्षण एक नितान्त आवश्यकता बन चुकी है। यह संकीर्ण धारणा है कि वृध्द गायोंकी हत्या कर देनी चाहिये, क्योंकि वे अनुपयोगी हो गयी है- ऐसी गो-हत्या के समर्थकों का एक दुष्प्रचारमात्र है, जबकी गायों की विविध उपयोगिताओं को देखते हुए देश में कोई अनुपयोगी गाय है ही नहीं; क्योंकि बूढ़ी गाय का दूध देना भले ही बन्द हो जाता है; पर मूत्र, गोबर और मरने के बाद अस्थि एवं चर्म की उपयोगिता तो बनी रहती है। इस प्रकार दूध न देने वाली गाय पर भी व्यय से अधिक की प्राप्ति ही होती है।
गो-सेवा की भावना से ही गो-रक्षा होती है, यह शाश्वत सत्य है। गो-सेव से हमारी और हमारे राष्ट्र की सुरक्षा रहती है, यह कोरी कल्पना की बात नहीं है श्रध्दा और विश्वास की बात है।
सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राटों की गो-सेवा इस सन्दर्भ में प्रमाण है।
त्रेतायुग में चक्रवर्ती महाराज दशरथ हुए हैं, वे अयोध्या के राजा थे। उस अयोध्या से रावण भी घबराता थ। उसका कभी साहस नहीं हुआ कि वह अयोध्या में आतंक फ़ैलाये, गो-ब्राह्मणों की हत्या करे। कृत्तिवासरामायण के उत्तरकाण्ड में वर्णन आता है कि सुर्यवंश के महाराज मान्धाता के पाशुपतास्त्र से पराजित रावण ने उन्हें वचन दिया था कि वह अयोध्या पर कभी भी आक्रमण नहीं करेगा।उस रावण ने ब्रह्म-लोक जाते समय महाराज अनरण्य को मार्ग में रोककर युध्द के लिये विवश किया और आहत होकर देह त्याग करते समय महाराज अनरण्य ने उसे शाप दिया कि रघुवंशी ही तेरा वध करेगा। तब से रावण अयोध्या की ओर से सशंक हो गया था। सूर्यवंशी एवं रघुवंशी महाराज यशस्वी, तेजस्वी, समृध्द्शाली, शक्तिशाली एवं सुखी-सम्पन्न रहे; क्योंकि उन्होंने अपनी श्रद्धा-भक्ति से भरपूर गो-सेवा की थी।
महर्षि वसिष्ठ जी की गो-सेवा एवं भक्ति सर्वविदित है। वे स्वंय अपअने हाथों नित्य गौ की सेवा करते थे। अपने आश्रम में देवी अरुन्धती और स्वयं वे नित्य गओ-की पूजा करते थे। गौ की कितनी महिमा है तथा गो-सेवा क्या है। उसकी शक्ति कितनी प्रबल होती है वह भली-भाँति जानते थे। इसलिये वह नित्य गायों का सानिध्य चाहते थे। सर्वविदित है कि महर्षि वसिष्ट जी ने अपनी चितकबरी होमधेनु (कामधेनु) शबला गो-के प्रभाअव से राजर्षि विश्वामित्रजी का चतुरंगिणी सेना सहित विशिष्ट आतिथ्य किया था।