गोपूजन की परम्परा के पीछे प्राणविज्ञान का रहस्य है ।
गोपूजन की परम्परा के पीछे प्राणविज्ञान का रहस्य है । कहा जाता है कि गाय में तैंतीस करोड देवी-देवता वास करते हैं । सामान्यत: हम देवता का अर्थ ईश्वर के रूपों अथवा अवतारों से लेते हैं किन्तु शास्त्र कुछ और ही बताते हैं । प्रकृति की शक्तियों को देवता कहा जाता है । हमारे अध्यवसायी ॠषियों ने सृष्टि में प्रवाहित जीवनदायी शक्तियों को सम्पूर्णता के साथ जाना । इस शक्ति को ही प्राण कहा जाता है । मूलत: सूर्य से प्राप्त यह महाप्राण सारी सृष्टि में विविधता से प्रवाहित होता है । उसके प्रवाह की गति, दिशा, लय व आवर्तन के भेदों का ॠषियों ने बडी सूक्ष्मता से अध्ययन किया । और इस आधार पर उन्होंने पाया कि ३३ कोटी प्रकार से प्राण प्रवाहित होता है या कहा जाय कि प्राण के तैंतीस कोटी प्रवाहित रूप हैं । इस प्रत्येक विशुद्ध प्रवाह को देवता कहा गया । सारी सृष्टि में विविध संमिश्रणों में यही प्राण विद्यमान है । सत्व, रज और तम, इस प्रकार इनके गुण भेद भी हैं । इस प्राण विज्ञान के अनुसार हमने पदार्थों के प्रयोग की विधियों का विकास किया । तुलसी, पीपल आदि में अधिक सत्व प्राण होने के कारण इनकी पवित्रता का उपयोग आध्यात्मिक रूप से किया गया । बिल्ली, तिल आदि के तम प्रधान प्राण संरचना के कारण ही इनके वर्जन की प्रथाओं का निर्माण हुआ । बिल्ली के राह काटने के कारण कार्य बाधा का शगुन-शास्त्र भी प्राण विज्ञान की ही देन है । प्राणविज्ञान के प्रति हमारे अज्ञान के कारण यह अंधविश्वास में परिणत हो गया है ।