परमात्मा का वास्तविक स्वरुप
समुद्रोऽसि, विश्व व्यचा, अजोऽस्येक पाद हिरसि।
―(यजु. अ. 5 मंत्र 33)
भावार्थ―ईश्वर सब प्राणियों का गमनागमन करने वाला, जग व्यापक और (अज) अजन्मा है, जिसके एक पाद में विश्व है।
न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यश:।
―(यजु. अ. 32 मं. 3)
भावार्थ―हे मनुष्यों ! ईश्वर कभी शरीर धारण नहीं करता, उसकी मूर्ति या आकृति नहीं है, उसकी आज्ञा पालन ही उसका स्मरण करना है।
ऋतश्च, सत्यश्च, ध्रुवश्च, धरुणश्च, धर्त्ता, च विधर्त्ता च विधारय:।
―(यजु. अ. 17 मं. 82)
भावार्थ―जो सत्य को जानने वाला, श्रेष्ठ, दृढ़ निश्चय युक्त, सबका आधार और धारण करने वाला तथा धारकों का धारक एवं विशेष रुप से सब व्यवहारों का धारण करने वाला परमात्मा है।
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँ शुद्धमपापविद्धं कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।
―(यजु. अ. 40 मं. 8)
भावार्थ―वह ईश्वर चारों ओर विद्यमान है, संसार को उत्पन्न करने वाला है, शरीर रहित है, नस-नाड़ियों के बन्धन में नहीं आता, पवित्र तथा पापों से दूर है, ज्ञानी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अजन्मा, ठीक-ठीक उपदेश करता है, हमेशा रहने वाले जीवों के लिये।
अपाणि पादौ, जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षु, स श्रृणोत्यकर्ण, स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता, तमाहुरग्र्यम् पुरुषं महान्तम् ।
―(श्वेताश्वरोपनिषद् अ. 3 श्लोक 19)
भावार्थ―हे मनुष्यों ! उस ईश्वर के हाथ नहीं हैं, परन्तु समस्त वस्तुओं की रचना करने वाला है और ग्रहण करने वाला है, उसके पैर नहीं हैं परन्तु सबसे अधिक गतिमान है, आँख नहीं है, परन्तु सबको देखता है, कान नहीं है परन्तु सबकी बात सुनता है। वह सब जगत् को जानने वाला है। उसको अवधि सहित जानने वाला कोई नहीं है। उसी को महान्, सनातन व सर्वश्रेष्ठ सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं।
दिव्यो ह्यमूर्त: पुरुष: सर्वा ह्याभ्यान्तरो ह्यज: आपाणो, ह्यमना, शुभ्रो ह्यक्षरात् परत: पर।
―(मुंडको. 2 खं. 10 श्लोक 2)
भावार्थ―वह परमात्मा दिव्य स्वरुप है, उसकी कोई मूर्ति नहीं है, वह व्यापक है, वह प्राणी मात्र के भीतर बाहर विद्यमान है, वह जन्म रहित है, बिना हाथों के शुद्ध स्वरुप है और नाश रहित है, सबसे परे व्यापक है।
एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़: सर्वव्यापी, सर्वभूतान्तरात्मा: कर्माध्यक्ष सर्व भूताधिवासा: साक्षी, चेता, केवलो निर्गुणश्च।
―(श्वेताश्वेतरोपनिषद् अ. 6 मं. 11)
भावार्थ―दिव्य गुणों से युक्त परमात्मा एक है, सब प्राणी मात्र में छिपा हुआ है, सर्वव्यापी है सब प्राणियों के अन्तरात्मा में विद्यमान है, सबके कर्मों को जानने वाला है। सब प्राणियों में निवास किये है। साक्षी, चेतन स्वरुप और निर्गुण है अर्थात् वह अल्पज्ञादि गुणों से रहित है।
क्लेशकर्मविपाकैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष: ईश्वर: ।
―(योग द० समाधि० 24)
भावार्थ―जो क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश), कर्म फल विपाक आदि से सर्वथा परे पुरुष विशेष ईश्वर है।
नोट―कुछ व्यक्ति पुरुष शब्द के आधार पर भ्रान्ति फैलाकर साकार ईश्वर मानते हैं। सो ऐसा नहीं है।
पुरु + ष =पुरु का अर्थ है ब्रह्माण्ड और ष का अर्थ है व्यापक, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत है, उसे पुरुष कहते हैं।
पुरुष: पुरिषाद: पुरिशय: पुरयते वा।
पूरयत्यत्तरित्यन्तर पुरुषम् अभिप्रेत्य।।
―(निरुक्त 2-3)
भावार्थ―इस भौतिक शरीर में रहने से जीवात्मा पुरुष है, ब्रह्माण्ड में व्यापक होने से ईश्वर पुरुष है।
यत्कारणमव्यक्तं, नित्यं सदसदात्मकम् ।
―(मनु अ. 1 श्लोक 11)
भावार्थ―जो परमात्मा जगत् का कारण है, नित्य, अव्यक्त, और सत् असत् का कर्त्ता है।