बिना गाय के मानव का भविष्य धूमिल है
किसी छोटे से छोटे कार्यक्रम का आयोजन भी बिना उसकी योजना के अपूर्ण ही रहता है। यदि कार्यक्रम की पूर्ण रूपरेखा बना ली गयी है और उसके एक-एक पहलू पर पूर्ण चिंतन-मनन कर लिया गया है तो फिर उसके संपन्न होने में किसी प्रकार की बाधा नही आ सकती। पूर्ण मनोयोग से किये गये कार्य को मिलने वाली असफलता भी कुछ शिक्षा देकर जाती है और उससे व्यक्ति निराश न होकर द्विगुणित ऊर्जा से भरकर पुन: प्रयास करता है और एक दिन सफल हो जाता है। किसी कवि ने कितना सुंदर कहा है :-
कोशिश कर हल निकलेगा।
आज नही तो कल निकलेगा।।
अर्जुन के तीर सा सध, मरूस्थल से भी जल निकलेगा।
मेहनत कर पौधों को पानी दे बंजर जमीं से भी फल निकलेगा।।
ताकत जुटा, हिम्मत को आग दे
फौलाद का भी बल निकलेगा।
जिंदा रख दिल में उम्मीदों को
गरल के समुन्दर से भी गंगाजल निकलेगा।।
कोशिशें जारी रख कुछ कर गुजरने की,
जो है आज थमा थमा सा, चल निकलेगा।।
पुरूषार्थी, योजनाकार और विवेकशील व्यक्तियों को ऐसे ही मनोभावों से सफलता मिला करती है।
यह जो सृष्टि है ना यह भी किसी पुरूषार्थी योजनाकार विवेकशील पुरूष की प्रायोजना है। अंतर केवल इतना है कि वह विवेकशील पुरूष कोई सांसारिक पुरूष न होकर पारलौकिक पुरूष है, परमपुरूष है। जिसने जगत का यह सारा तामझाम बनाया है, रचा है। मानव की रचना में मानव कोई दोष निकाल दे, यह तो संभव है, क्योंकि मानव अल्पज्ञ है, उसका ज्ञान ससीम है, सीमाओं में बंधा है, पर उस असीम परमपुरूष की किसी रचना में आप दोष नही निकाल सकते। वह स्वयं भी पूर्ण है और उसकी रचना भी पूर्ण है। पूर्ण में से चाहे जितना अंश निकाल लो, चाहे पूर्ण में से पूर्ण निकाल लो वह तो पूर्ण ही रहना है। अत: उसकी रचना में कोई दोष नही निकाला जा सकता।
ईश्वर ने सृष्टि रची है तो इसमें उसने अपने पूर्ण ज्ञान और विज्ञान का समायोजन किया है। हर पग पर आपको उसके ज्ञान-विज्ञान की झलक मिल जाती है। उसकी रचना में वैसा ही समायोजन है जैसा एक कुशल शिल्पकार की रचना में होता है। जैसे एक कुशल शिल्पकार एक-एक ईंट को काट छांटकर लगाता है और देखते ही देखते एक भवन बना देता है, वैसे ही उस ईश्वर ने पूर्ण समायोजन करते हुए हर जीवधारी को एक दूसरे के साथ समन्वय बनाने के लिए भेजा है। उसने ना तो कोई वनस्पति अनुपयोगी बनायी है और ना ही कोई पशु-पक्षी या कोई जीवधारी अनुपयोगी बनाया है। सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है, अपना-अपना महत्व है। जो लोग ईश्वर के रचना विज्ञान के इस रहस्य को जानते समझते हैं कि उसने कोई भी वनस्पति या जीवधारी अनुपयोगी बनाया है। सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है, अपना-अपना महत्व है। जो लोग ईश्वर के रचना विज्ञान के इस रहस्य को जानते समझते हैं कि उसने कोई भी वनस्पति या जीवधारी अनुपयोगी नही बनाया । जो लोग ईश्वर की सृष्टि को इसी भाव से देखते हैं कि यहां सब एक दूसरे के सहयोग के लिए और एक दूसरे का सहयोग कर रहे हैं, वे इस संसार में रहकर सदा सकारात्मक ऊर्जा से भरे रहते हैं और प्रत्येक प्राणी को अपने लिए उपयोगी और सहयोगी मानते हैं। ऐसे लोगों की ऐसी सकारात्मक सोच के कारण प्राकृतिक संतुलन भी बना रहता है, और हर व्यक्ति संसार के समस्त प्राणियों के साथ सहयोगी बनकर चलने का प्रयास करता है। ऐसे लोगों की वेद की भाषा में घोषणा होती है :-
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे (यजु. 36/18) अर्थात मैं सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूं। कहने का अभिप्राय है कि जैसे कोई सच्चा मित्र अपने मित्र की हत्या नही कर सकता वैसे ही किसी अन्य को अपना मित्र मानने के कारण एक व्यक्ति उसकी हत्या अपने निहित स्वार्थ अर्थात उदरपूर्ति के लिए नही कर सकता। इसका एक कारण यह भी है कि जब मनुष्य हिंसा से किसी की हत्या करके मांसाहार करने लगता है तो उस समय उसकी प्रवृत्ति दानवी अर्थात घात-प्रतिघात वाली हो जाया करती है। ऐसी प्रवृत्ति से बुद्घि का नाश होता है और व्यक्ति सदा अपने आपे से बाहर होने वाला आचरण-व्यवहार करता रहता है। तब क्या होता है?
यत्र वि जायते यामिन्यपर्तु: सा पशून क्षिणाति रिफती रूशती। (अथ. 3/28/1) अर्थात जिस अवस्था में बुद्घि विशेष बिगड़ जाती है अमर्यादित हो उठती है और असंतुलित होकर अपनों पर ही घात-प्रतिघात करने लगती है तो वह शास्त्राघात से मारती हुई तथा अन्य उपायों से हत्या करती हुई पशुओं को नष्ट करती है। अत: मानवता इसी में है कि किसी प्रकार की पाशविकता या दानवता का प्रदर्शन किसी भी स्थिति परिस्थिति में न किया जाए। जिस पाशविकता को पशु समाज में देखकर मनुष्य हिंसाचार की बातें करता है उसके विषय में उसे ज्ञात होना चाहिए कि तुझे हिंसाचार नही करना है, क्योंकि तू हो पशु न होकर मनुष्य है। तू अपना धर्म पहचान और उसके अनुसार आचरण करने वाला बन।
जिस वैदिक धर्म में हिंसा निषेध की बातें (प्रत्येक प्राणी के जीवन का सम्मान करते हुए) पूर्ण निष्ठा से की जाती है उसमें गाय जैसे अति उपयोगी प्राणी की हिंसा का निषेध ना हो, भला यह कैसे हो सकता है? वैसे भी गाय की उपयोगिता को सर्वप्रथम समझने वाला संसार का एकमात्र धर्मग्रंथ वेद है, और उसके द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म है। भारत के लोगों के लिए यह परम सौभाग्य का विषय है कि हमने भारत माता के समान ही गौमाता को सम्मान दिया है। इसका कारण केवल यही है कि हमने गौमाता के महत्व को समझा है। जैसे दोपायों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही चौपायों में गाय सर्वश्रेष्ठ है। जिसकी हत्या कदापि नही होनी चाहिए। हिंसक लोग उपद्रवी और अशांति उत्पन्न करने वाले होते हैं। जिससे विश्व में विद्या शिल्प व्यवसाय की उन्नति अवरूद्घ होती है। ऐसे उपद्रवी लोगों को समाप्त करने की प्रार्थना राजा से प्रजाजन करते हैं। राष्ट्रवासी राष्ट्रपति से कहते हैं :-
वि न इंद्र मृधो जहि=अर्थात हे इंद्र! ऐश्वर्यशाली राजन! आपको हमने अपना राजा इसलिए नियुक्त किया है कि आप हमारे मसलने वालों को अर्थात मृधों को मार डालें, जो लोग हमारा किसी भी प्रकार से शोषण या उत्पीडऩ करते हैं, उन्हें आप नष्ट कर दें। ऐसे लोग चाहे कितने ही साधन संपन्न और उच्च पदस्थ क्यों न हों राजा को प्रजा पीडक़ों के विनाश में कोई प्रमाद नही करना चाहिए। अथर्ववेद 1/21/3 में भी कहा गया है कि-‘‘वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रूज’’ अर्थात जो लोग राक्षस प्रवृति के हैं, या प्रजा उत्पीडक़ हैं या प्रजा पर किसी भी प्रकार का अत्याचार करते हैं, उसका शोषण करते हैं, उसके जीवन और जीने के मौलिक अधिकार का हनन करते हैं, उनको राजा कठोर से कठोर दण्ड दे। उपद्रवियों को समाप्त करना राजा का धर्म है। इसीलिए ऋग्वेद (10/152/2) में कहा गया है कि-
स्वस्तिदा विशस्पतिर्वृत्रहा वि मृधो वशी। वृषेन्द्र: पुर एतु न: सोमपा अभयंकर:।।
अर्थात सुख प्रदाता कल्याण प्रदाता प्रजा के लिए हर प्रकार से सुखशांति देने वाला प्रजा पालक पापनाशक प्रजोत्पीडक़ों का नियंत्रणकारी, सुखवर्षक, ऐश्वर्यरक्षक और अभयंकर भय रहित करने वाला व्यक्ति हमारा नेता हो।
राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है। इसका कारण यह है कि जैसे राजा अपनी समस्त प्रजा (समस्त योनियों के समस्त जीवधारियों) के लिए कल्याणप्रदाता, सुखवर्षक, शांति प्रदाता आदि है उसी प्रकार राजा को भी हिंसाचार से किसी भी जीवधारी के प्राणों की रक्षा करनी चाहिए। उसे भी सबके प्रति दयाभाव अपनाने के लिए अपने राज्य के लोगों को प्रेरित करना चाहिए। यही कारण है कि भारत में दया को धर्म का मूल माना गया है। यह दयाभावना मनुष्य की मनुष्य के प्रति ही नही होनी चाहिए, अपितु सभी जीवधारियों के प्रति होनी चाहिए। तभी तो ‘जीवों पर दया करो’-ऐसा आदर्श सूत्र वाक्य हमारे यहां बचपन में ही बच्चों को सिखाया जाता है। हिंसक जीवों को उस समय समाप्त कर देना उचित है जब वे मानव समुदाय को कहीं चोट करने लगते हैं, या अपनी हिंसा का शिकार बनाकर उन्हें समाप्त करने लगते हैं। वन्य हिंसक जीवों के शिकार की परंपरा भी हमारे राज-परिवारों में इसीलिए चली थी कि उनके शिकार करने से एक तो मानव समुदाय की रक्षा हो जाती थी, दूसरे क्षत्रिय लोगों का शस्त्राभ्यास भी हो जाता था। इस प्रकार शिकार की भी अपनी मर्यादाएं थीं, उसकी अपनी सीमाएं थीं। ऐसा नही था कि शिकार जब चाहे जिस प्राणी का कर लिया और उसे मारकर खा लिया। शिकार को मारकर खाने की परंपरा विदेशी है और इन विदेशियों के संसर्ग और संपर्क में आने पर भारतीयों को यदि यह रोग लगा तो यही वह संस्कृति है जिसे ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ कहकर देश में प्रचारित कर महिमामंडित किया जाता है। इस गंगा-जमुनी संस्कृति ने हमें दोष दिये हैं, दुर्गुण दिये हैं और उन दोष व दुर्गुणों के दिये दुर्दिनों के कारण आज हम दु:ख भोग रहे हैं। क्योंकि हमने प्राकृतिक संतुलन को बिगाडऩे की दिशा में तो उन्नति की है पर उसे सुधारने की दिशा में कोई कार्य नही किया।
वेद की भाषा में देशवासी अपने राष्ट्रपति से उपद्रवियों और प्रजोत्पीडक़ों के विनाश की अपील कर सकते हैं तो अन्य मूक प्राणियों की अंतर्मन की पीड़ा को राजा को स्वयं ही सुनना चाहिए, उनके जीवन की रक्षा का भार वह वैसे ही उठाये जैसे ईश्वर अपनी प्रजा की सुरक्षा का भार उठाये रहता है, क्योंकि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। यदि राजा अपने कत्र्तव्य में चूक करता है तो मनुष्य समुदाय से उत्पीडि़त प्राणियों को अधिकार है कि वे राजाओं के राजा स्वयंभू ईश्वर से अपनी पुकार करें कि मनुष्य के उत्पातों से हमारी रक्षा करो। वह ईश्वर न्यायकारी है। वह जब देखेगा कि मनुष्य अपने धर्म से और राजा अपने धर्म से डिग गया है और इनके कारण अन्य जीवधारियों का अस्तित्व ही संकट में है तो वह अपने न्याय से ऐसे राजा और ऐसे लोगों का भारी विनाश कर सकता है। सारी मानवता आज परमाणु युद्घ के भय के साये में जी रही है कहीं यह भय ईश्वर के किसी न्याय की ओर तो प्रकृति का संकेत नही है?
आज गाय जब रम्भाती है-तो वह रम्भाती कम है, डकराती अधिक है। मानो वह परमपिता से कह रही है कि-‘मुझे बचाओ इस दुष्ट मानव से जो मुझे अस्तित्वविहीन करने पर तुला है।’ हमारा विश्वास है कि ईश्वर गाय की पुकार को अवश्य सुनेंगे-मानव को अपने किये का दण्ड भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि इस अशुभ कर्म का फल उसे अवश्य ही मिलेगा। उस परमपिता के न्यायालय में ना कोई कुतर्क चलेगा और ना कोई बहाना चलेगा, वहां तो न्याय होगा और न्याय भी ऐसा कि जिसमें पूर्ण पारदर्शिता होगी। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा वहां। जिनके हाथ में पानी आएगा-वह समझ लेंगे कि यह पानी नही तुम्हारा ‘पाप’ है, किये का फल है। गाय के साथ बुरा करोगे तो बुरा फल भोगोगे।
साभार - राकेश कुमार आर्य