भारतीय गौवंस और भयानक राजनीती
गाय भारतीय संस्कृति से इस प्रकार जुड़ी हुई है कि भारतीय संस्कृति से उसे अलग नही किया जा सकता। यदि गौमाता को भारतीय संस्कृति से अलग करने का प्रयास किया गया तो इन दोनों में से एक ही हत्या हो जाना निश्चित है। संसार में प्रचलित ईसाइयत और इस्लाम की संस्कृतियों ने इस पशु को केवल एक पशु ही माना है। ऐसा पशु जो मानव के उपभोग के लिए बना है, और जिसे वह चाहे तो उसे मारकर भी खा ले।
इन लोगों की मान्यता है कि संसार में ‘मत्स्य राज’ होना चाहिए अर्थात बड़ी मछली जिस प्रकार छोटी मछली को खा जाती है, उसी प्रकार हर जीवधारी को एक दूसरे के प्रति व्यवहार अपनाना चाहिए। अत: बात स्पष्ट है कि जीवन एक ऐसी प्रतियोगिता है जो दूसरों को समाप्त कर जाने की ताक में है। इसलिए ये लोग कहा करते हैं कि-मानव संसार में सभी जीवधारियों में श्रेष्ठ और बुद्घिमान है। इसलिए वह जैसे चाहे रह सकता है।
उनकी दृष्टि में मनुष्य को यह भी अधिकार है कि अपने स्वाद के लिए यदि अन्य प्राणियों के जीवन दीप को बुझाना भी पड़े तो वह बुझा सकता है। अन्य प्राणियों के प्रति ऐसी नीति रखकर भी विश्वशांति की बातें करना निरर्थक जान पड़ता है। क्योंकि विश्वशांति और जीव भक्षण दो परस्पर विरोधी विचारधारायें हैं। विश्वशांति की सहयोगी रेखा जीव रक्षण के रूप में खींची जा सकती है। जीव रक्षण भी ऐसा कि जिसमें हम प्रत्येक जीवधारी के जीवन के संरक्षण और संवद्र्घन में सहयोगी और सहभागी हों-ये है भारतीय संस्कृति।
गाय, गंगा और गायत्री भारतीय संस्कृति की ‘त्रिवेणी’ हैं, इस त्रिवेणी में गाय एक निरा पशु ही नही है, अपितु हमारी माता भी है। क्योंकि ‘माता निर्माता भवति’ की तर्ज पर वह हमारे निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसलिए संसार के हर महापुरूष ने गाय के प्रति सम्मानजनक भाव प्रकट किया है। देखिये गुरूनानक जी ने कहा है-
मांस-मांस सब एक हैं, मुर्गी हिरनी और गाय।
आंख देखकर नर खाते हैं वे नर नर्क को जाए।।
ईसामसीह का कहना है-‘‘एक बैल को मारना एक मानव को मारने समान है।’’ मौहम्मद साहब का कथन है कि-‘गाय का दूध और घी तुम्हारी तंदुरूस्ती के लिए बहुत आवश्यक है, उसका गोश्त नुकसानदायक है।’
वेदों के अनुसार-‘जो तुम्हारी गायों को मारता है तुम उसे शीशे की गोली से बींध दो अर्थात उसे जान से मार दो।’
भारत के प्रथम स्वातंत्र्यसमर का एक कारण हिंदू सैनिकों को गाय और मुस्लिमों को सूअर का मांस खाने के लिए अंग्रेजों द्वारा बाध्य करने की नीति भी थी।
परंतु हमारे देश में धर्म निरपेक्षियों के शासन में मांसाहार को प्रोत्साहित करने का कार्य प्रारंभ कर दिया गया। जहां यह होना चाहिए था कि प्रत्येक सम्प्रदाय के महामानव के गाय के प्रति उपरोक्त सम्मानभाव को अपनी जीवनचर्या और राष्ट्रचर्या का आवश्यक अंग घोषित किया जाता, किंतु ऐसा दुर्भाग्यवश हुआ नही।
इस देश के शासक वर्ग की एक सोच रही है कि बहुसंख्यकों के अधिकारों, धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं पर जितना प्रतिबंध लगा दिया जाए वे उतने ही ‘धर्मनिरपेक्षी’ कहला सकेंगे। इसलिए यदि गाय की उपयोगिता को मात्र हिंदू वर्ग ही स्वीकार कर रहा है तो इस पर शासन की मुहर नही लग सकती। क्योंकि उसे अपना धर्मनिरपेक्ष (धर्महीन तो ये हैं ही) स्वरूप स्थापित रखना है। इसी प्रकार दूसरी ओर कुछ अन्य लोग हैं जो इसलिए उल्टी बोली बोलते हैं कि उन्हें हिंदुओं के सर्वथा विपरीत बोलना है। हिंदू पूरब को चलने के लिए कहें तो वे पश्चिम को चलेंगे। क्योंकि यदि एक ही दिशा में चल दिये तो साम्प्रदायिक एकता का वातावरण बन सकता है जो उन्हें बनने नही देना है। इसलिए उनका मजहब उनसे कहता है कि उल्टे चलो।
इसलिए हमारी मान्यता है कि-
‘‘मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना’’
फिर भी यहां तोते की तरह रटाया जाता है कि-
‘‘मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना’’
फिर एक भ्रम को पालकर हमारे मन-मस्तिष्क में बैठाकर उसे सत्य के रूप में महिमामंडित करना इन धर्मनिरपेक्षियों का सबसे बड़ा धर्म बन गया है। धन्य हैं ये हमारे महान बुद्घिजीवी अत: इनको-
-मौहम्मद साहब की बात नही माननी है।
-ईसा की बात नही माननी है।
-नानक की बात नही माननी है।
-वेद की बात नही माननी है।
हमारे इन महान धर्मनिरपेक्ष बुद्घिजीवी कहे जाने वाले नेताओं को बात किसी की नही माननी, और जनता को नारा ये देना है कि-
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई।
आपस में हैं सब भाई-भाई।।
आइए, विचार करें राष्ट्ररक्षा और राष्ट्र की संस्कृति पर। गाय और धरती पर जीवन के बचाने पर। इन सबकी रक्षा का ज्वंलत प्रश्न आज हमारे सामने मुंह बाये खड़ा हुआ है। मैं जानता हूं कि संप्रदाय के विषैले झोकों में से यारे प्रश्न ऐसे उड़ जाएंगे कि मानो ये कभी थे ही नही, किंतु फिर भी राष्ट्र की आत्मा या हृदय तो इनके उत्तर पाने के लिए अधीर रहेगा ही। आजकल गाय को बचाने की बात होती है तो भारत की स्वदेशी सरकार कुछ नही कर पाती। विदेशों के लिए गोमांस निर्यात करके कुछ चांदी के टुकड़ों के बदले में भारतीय संस्कृति का नाश किया जाता है। गाय मूक रूप में खड़ी हुई आज के इस मानव से पूछ रही है-
‘‘रे कृतघ्न मानव समाज, मैंने तेरी इतनी सेवा की, उन सेवाओं का यह पुरस्कार कि मेरे गले पर तेरे ही कृतघ्न और पापी हाथ छुरा चला रहे हैं, तू नीच है, तू पापी है, तू अधर्मी है।’’
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडयंत्र : दोषी कौन?’ से)