मां के दूध के बाद सबसे पौष्टिक आहार देसी गाय का दूध ही है ।

मां के दूध के बाद सबसे पौष्टिक आहार देसी गाय का दूध ही है ।

आज भी गाय की उत्पादकता व उपयोगिता में कोई कमी नहीं आई है । केवल हमने अपनी जीवनशैली को प्राकृतिक आधार से हटाकर यन्त्राधारित बना लिया है । विदेशियों के अंधानुकरण से हमने कृषि को यन्त्र पर निर्भर कर दिया । यन्त्र तो बनने के समय से ही ऊर्जा को ग्रहण करने लगता है और प्रतिफल में यन्त्रशक्ति के अलावा कुछ भी नहीं देता । बैलों से हल चलाने के स्थान पर ट्रेक्टर के प्रयोग ने जहाँ एक ओर भूमि की उत्पादकता को प्रभावित किया है वहीं दूसरी ओर गोवंश को अनुपयोगी मानकर उसके महत्व को भी हमारी दृष्टि में कम कर दिया है । फिर यन्त्र तो ईंधन भी मांगते हैं । आज खनिज तेल के आयात के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर हो रहा है । और बढती महंगाई का एक महत्वपूर्ण कारण यह तेल निर्भर व्यापार ही है । अप्राकृतिक, पर्यावरण के लिये विनाशकारी इस जीवनशैली को छोड गो आधारित उत्पादक अर्थनीति को अपनाना ही अक्षय विकास का माध्यम हो सकता है । आधुनिक तकनीकि उन्नति का प्रयोग कर गो-ऊर्जा पर आधारित कृषि यन्त्रों को विकसित करने की आवश्यकता है ताकि प्राकृतिक विधि से उत्पादकता भी बढे और गोमाता का आशीर्वाद भी बना रहे।

गाय को गोमाता के रूप में मानना भी अत्यन्त वैज्ञानिक है । मां के दूध के बाद सबसे पौष्टिक आहार देसी गाय का दूध ही है । इसमें जीव के लिये उपयोगी ऐसे संजीवन तत्व है कि इसका सेवन सभी विकारों को दूर रखता है । जिस प्रकार मां जीवन देती है उसी प्रकार गोमाता पूरे समाज का पोषण करने का सामर्थ्य रखती है । इसमें माता के समान ही संस्कार देने की भी क्षमता है । देशज वंशों की गाय स्नेह की प्रतिमूर्ति होती है । गाय जिस प्रकार अपने बछडे अर्थात वत्स को स्नेह देती है वह अनुपमेय है, इसलिये उस भाव को वात्सल्य कहा गया है । वत्स के प्रति जो भाव है वह वत्सलता है । मानव को स्वयं में परिपूर्ण होने के लिये आत्मीयता के इस संस्कार की बडी आवश्यकता है । परिवार, समाज, राष्ट्र व पूरी मानवता को ही धारण करने के लिये यह त्याग का संस्कार अत्यन्त आवश्यक है । पूरे विश्व का पोषण करने में सक्षम व्यवस्था के निर्माण के लिये अनिवार्य तत्व का संस्कार गोमाता मानव को देती है । शोषण मानव को दानव बनाता है । गोमाता संस्कार देती है दोहन का । दोहन अर्थात अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही संसाधनों का प्रयोग । जिस प्रकार गाय का दूध निकालते समय बछडे की आवश्यकता को संवेदना के साथ देखा जाता है उसी प्रकार जीवन के सभी क्रिया-कलापों में भोग को नियंत्रित करने का संस्कार दोहन देता है । आज सारी व्यवस्था ही शोषण पर आधारित हो गई है । इस कारण सम्पन्न व विपन्न के बीच की खाई ब‹ढती जा रही है । गोमाता के मातृत्व को केन्द्र में रखकर बनी व्यवस्था से ही “सर्वे भवन्तु सुखिन:” को साकार करना सम्भव हो सकेगा । इसी आदर्श को प्रस्थापित करने हमारे ज्ञानी ॠषी पूर्वजों ने गाय की पूजा की ।

 

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