भारतीय अर्थव्यवस्था की आत्मा गाय
हमारा खेतिहर देश जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर खड़ा है, जिसकी आत्मा गाय है। संसार के अन्य देशों के लोग दूध के लिये गाय और खेती के लिये घोड़े या मशीन रखते हैं। वहां के किसानों का काम भिन्न भिन्न पशुओं से चलता है पर हमारे पूर्वजों ने एक ही गाय से दोनों काम किए, गाय से दूध और गोपुत्र बैल से हल चलाना। गांव नगरों में भार—बोझ ढोने, कुएँ—रहट तथा तेलघानी चलाने आदि का काम भी बैलों से लिया जाता है। आज भी ७०% खेती का आधार बैल ही है। हमारे जीवन की आवश्यक खाद्यान्न वस्तुएँ खेती से ही प्राप्त होती हैं और इस हेतु गोवंश हमारे कृषि जीवन का बहुत बड़ा आधार है। वस्तु का मूल्यांकन आर्थिक दृष्टि से होता है। विश्वविख्यात पशु विशेषज्ञ डॉ.राइट के मतानुसार:—‘‘गोवंश से होने वाली वार्षिक आय ११ अरब रुपये से अधिक है।’’ यह गणना १९३५ के वस्तुओं के भावों के अनुसार लगाई गयी है, आज सन् १९३५ की उपेक्षा वस्तुओं के भाव कई गुना अधिक बढ़ गये हैं अत: गोवंश से होने वाली आय १०० अरब रुपये से अधिक है। कपड़ा, चीनी,लोहा आदि कारखानों और रेलों से भी इतनी आय नहीं होती, जितनी गोधन से होती है। वास्तव में गाय भारतीय आर्थिक ढांचे का आधारस्तंभ और हमारे जीवन का मुख्य सहारा है क्योंकि खेती को वे जुआ मानते हैं। जब तक अनाज घर में नहीं आ जाता तब तक किसान के सिर पर कच्चे धागे से बंधी संदेह की तलवार लटकती रहती है। कह नहीं सकते कि ये कब टूट जायेगी? अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हिमपात के धक्कों से उसके सपनों का शीशमहल परिवार की व्यवस्था का आधार तथा देश की समृद्धि का महल कब टूट जायेगा ?
भारत में पूरे वर्ष में केवल साढ़े तीन माह की वर्षा होती है, वह भी अनिश्चितता लिए हुए होती है। इस अनिश्चितता में किसान किसका सहारा ले? अत: प्रत्येक किसान को गोपालन को पूरक व्यवसाय बनाना चाहिए ताकि जब कभी प्रकृति माता उस पर क्रोधित होगी तब उसे गोमाता मदद करेगी। महाराज शंभु ने दयानंद सरस्वती के वाक्यों को ठीक ही दोहराया है कि—
गाय है तो हम हैं, गाय नहीं तो हम नहीं।
गाय मरी तो बचेगा कौन?
गाय बची तो मरेगा कौन?।(कोई नहीं)