मैनेजर की नौकरी छोड़ खोली गोशाला
सरकारी अफसरों से भरे परिवार में उसने बहुत पहले तय कर लिया था कि वह अपने मन का काम करेगी. इसीलिए 2010 में उसने एसबीआइ लाइफ इंश्योरेंस कंपनी के दिल्ली में कनॉट प्लेस वाले दफ्तर की मैनेजरी को तौबा किया और मुंबई चली गई. यहां एक सहेली के साथ मिलकर लोखंडवाला में ‘बॉटलग्रीन’ नाम से स्टाइलिश कपड़ों का शोरूम शुरू कर दिया. काम चल निकला.
लेकिन संगम किनारे वाली लड़की को समंदर के शहर की हवा कहां रास आती भला! सो मन फिर उचट गया. वह इलाहाबाद लौट आई और यहां से प्रतापगढ़ रोड पर 30 किमी दूर अपने पुश्तैनी गांव धोसड़ा पहुंची. गोबर लिपे चबूतरों और दूध दुहते किसानों को देखकर उसके एमबीए दिमाग में नया पॉप अप ब्लिंक हुआ—”पापा देसी गायों की सेवा करते हैं, आस्था को बिजनेस मॉडल का सहारा मिल जाए तो धर्म और बिजनेस दोनों चल सकते हैं.”
इस विचार के बाद 30 वर्षीय निधि यादव की जिंदगी बदल गई. उन्होंने अपने पिता शिक्षाविद् वासुदेव यादव के सहयोग से देश के अलग-अलग इलाकों से परित्यक्त देसी नस्ल की गायों को गांव लाना शुरू किया. आज धोसड़ा गांव में उनकी 100 गायों की गोशाला ‘गोधाम’ है. जहां सिर्फ साहीवाल और गीर नस्ल की भारतीय गाएं हैं.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि यहां गोमाता की सेवा ही हो रही है या बिजनेस का ख्वाब भी आगे बढ़ रहा है. निधि की सुनिए, ”बिजनेस से आपका मतलब दूध और उससे बनने वाले उत्पादों से होगा,लेकिन पहले वह सुनिए जो आपके सवाल में शामिल नहीं है.” पहला काम तो यहां यह हुआ है कि जिन 40 एकड़ खेतों के बीच यह गोशाला बनी है, वहां पूरी तरह ऑर्गेनिक खेती हो रही है, क्योंकि यहां खेती के लिए खाद गोशाला से निकले गोबर और गोमूत्र से मिल रही है.
फ्रांस की एक कंपनी ने गोधाम की फसल को ऑर्गेनिक प्रमाणपत्र दे दिया है. बाकी किसानों का गेहूं जहां 1,400 रु. क्विंटल बिकता है वहीं गोधाम का गेहूं 2,500 रु. क्विंटल. यहां की गायें रोजाना 15 से 20 लीटर दूध देती हैं जो विदेशी नस्ल की गायों से थोड़ा कम है, लेकिन इन गायों के रख-रखाव पर होने वाला खर्च तो विदेशी गायों पर होने वाले खर्च का आधा भी नहीं. निधि के सॉफ्टवेयर इंजीनियर पति प्रभात कुमार चुटकी लेते हैं, ”इन्हें इतनी फिक्र तो आद्या (निधि की 4 महीने की बेटी) की भी नहीं है, जितनी गाय के बछड़ों की रहती है.”
निधि बखूबी जानती हैं कि यह वक्त हाइजिन और इकोफ्रेंडली जुमलों को जोर से उछालने का है. दो टवेरा गाडिय़ां सुबह-शाम गांव से दूध लेकर इलाहाबाद पहुंच जाती हैं. गोधाम के दूध के ग्राहकों में इलाहाबाद हाइकोर्ट के जज, बड़े सरकारी अफसर और शहर की मिठाई की नामी दुकानें शामिल हो गई हैं. लेकिन निधि को अंदाजा है कि यह तो बस शुरुआत भर है. वे इस जुगत में लगी हैं कि किस तरह गोधाम को ‘डेयरी प्लांट’ में बदला जाए.
उनकी मुहिम का समर्थन करते हुए उनके पिता वासुदेव यादव कहते हैं, ”अगर हम समाज को यह दिखा सकें कि गाय पालना आज भी मुनाफे का सौदा है, तो शायद हमें उन मनहूस मंजरों से निजात मिल जाए, जिसमें गाय सड़कों पर पॉलीथीन और दर-दर की ठोकरें खाती दिखती हैं.