इक्कीसवीं सदी में बैलों का भविष्य
भारत में अधिकतर किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है,लेकिन भारत सरकार की जो नीतियां चल रही हैं वे अधिकतर बड़े किसानों के लिये हैं। यंत्रीकरण और ट्रेक्टरों के लिए ऋण, अनुदान व अन्य सुविधायें उपलब्ध कराई जाती है, जिनका उपयोग वे किसान नहीं कर सकते जिनके पास चार पाँच हेक्टेयर भूमि है। उन्हें तो पशुशक्ति पर ही आधारित रहना होगा। प्रश्न यह उठता है कि क्या पशुशक्ति आर्थिक दृष्टि से ट्रैक्टर का मुकाबला नहीं कर सकती? यदि सभी पहलू देखे जाएं और उनका मूल्यांकन किया जाय तो पशुशक्ति न केवल इक्कीसवीं सदी में बल्कि शायद २५ वीं सदी में भी अधिक उपयोगी बनी रहेगी।
अमेरिका के एक प्रतिष्ठित संस्थान ‘‘वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट’’ ने अपनी हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट में सिफारिश की है कि ‘‘स्थायी कृषि और पर्यावरण सुधार के लिए कृषि का आधार पशुओं को ही दोबारा बनाना होगा।’’ फिर हम यंत्रीकरण की ओर क्यों भाग रहे हैं? १९८२ की पशुगणना के आधार पर हमारे देश में ८ करोड़ २० लाख बैल खेती में लगे थे। उसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं अत: इसी को आधार मानकर:— एक ट्रैैक्टर चार बैलों का काम कर पाता है अत: ८ करोड़ २० लाख बैलों के लिये हमें २ करोड़ ५ लाख ट्रैक्टरों की आवश्यकता होगी।
आज हमारे देश में केवल ५ लाख ट्रैक्टर कार्यरत् हैं, इनकी संख्या २ करोड़ ५ लाख करने में कितने वर्ष लगेंगे? इसका अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं।
प्रतिवर्ष ५० से ६० हजार ट्रैक्टर ही अधिकाधिक बढ़ पाते हैं और दस बारह वर्षों के बाद नये ट्रैक्टर भी बेकार हो जाते हैं।
इन ट्रैक्टरों के लिए आज विदेशी मुद्रा में पेट्रोलियम पदार्थों का आयात प्रतिवर्ष कम से कम ५० हजार करोड़ का करना होगा। इस समय पेट्रोलियम पदार्थों का आयात मात्र १५ हजार करोड़ रुपये का है लेकिन इसके लिये भी हमें विदेशी कर्ज लेना पड़ता है।
जिन बड़े किसानों ने ट्रैक्टर ले भी लिए हैं उन्हें भी कुछ बैल तो रखने ही पड़ते हैं, बहुत से ऐसे कार्य हैं जो सिर्फ बैलों से होते हैं।
बैलों द्वारा जो भार वहन का कार्य होता है, वह भी करीब २५०० करोड़ किलोमीटर के बराबर है। इतना भारवाहन तो हमारी संपूर्ण रेलवे भी नहीं कर पाती है। यदि इसका भी यंत्रीकरण किया जाय तो न जाने कितने ट्रकों की आवश्यकता होगी और फिर इनके लिये वही प्रश्न उठेगा,पेट्रोलियम पदार्थों का आयात।
गोवंश एक ऐसा धन है जिसका बहुउद्देशीय उपयोग है। जब ट्रैक्टरों के माध्यम से खेती करते हैं तो न तो गोमूत्र और न ही गोबर मिलेगा। गोबर व सेन्द्रिय खाद के कितने गुण हैं इसे अमेरिका व पाश्चात्य देशों ने बहुत अच्छी तरह से समझ लिया है और वहां लाखों ऐसी दुकाने खुल गई हैंं जो ऐसे खाद्यान्न और फलफूल बेचती हैं जिन्हें गोबर व सेन्द्रिय खाद द्वारा ही उत्पादित किया गया है। ऐसे पदार्थों के वे अधिक दाम देने में भी नहीं हिचकिचाते हैं।’’