परमात्मा का वास्तविक स्वरुप
समुद्रोऽसि, विश्व व्यचा, अजोऽस्येक पाद हिरसि।
―(यजु. अ. 5 मंत्र 33)
भावार्थ―ईश्वर सब प्राणियों का गमनागमन करने वाला, जग व्यापक और (अज) अजन्मा है, जिसके एक पाद में विश्व है।
न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यश:।
―(यजु. अ. 32 मं. 3)
भावार्थ―हे मनुष्यों ! ईश्वर कभी शरीर धारण नहीं करता, उसकी मूर्ति या आकृति नहीं है, उसकी आज्ञा पालन ही उसका स्मरण करना है।