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लोग कहते माँ मुझे पर मैं बड़ी असहाय हूँ।।

गाय हूँ, मैं गाय हूँ,
इक लुप्त- सा अध्याय हूँ।
लोग कहते माँ मुझे पर मैं बड़ी असहाय हूँ।।
दूध मेरा पी रहे
सब,
और ताकत पा रहे।
पर हैं कुछ पापी यहाँ जो,
माँस मेरा खा रहे।
देश कैसा है जहाँ, हरपल ही गैया कट रही।
रो रही धरती हमारी,
उसकी छाती फट रही।
शर्म हमको अब नहीं है,
गाय-वध के जश्न पर,
मुर्दनी छाई हुई है,
गाय के इस प्रश्न पर।
मुझको बस जूठन खिला कर,
पुन्य जोड़ा जा रहा,
जिं़दगी में झूठ का,
परिधान ओढ़ा जा रहा।
कहने को हिंदू हैं लेकिन,
गाय को नित मारते।
चंद पैसों के

गाय के ग्रामीण अर्थशास्त्र

गाय के ग्रामीण अर्थशास्त्र को समझने के लिये ‘गाय’ को केन्द्र में रखें तो उसका नक्शा कुछ ऐसा बनता है:— गाय से घी—दूध, मक्खन, मट्ठा, गाय से खेतों के लिये बैल, गाय—बैल से खेतों के लिये खाद, परिवहन के लिये बैलगाड़ी, चमड़े के लिये मृत गाय बैल और गाय बैल के पोषण के लिये घास, भूसा जो खेती के उपउत्पाद हैं। इस प्रकार खेती पर आधारित किसान के लिये संपूर्ण गोवंश अत्यंत महत्वपूर्ण है। खेती भारतीय किसान के लिये एक पूजा है, जीवंत श्रम है, साधना है। गाय मनुष्य को श्रेष्ठ जीवन का पाठ सिखाती है, वह हमें दूध जैसा उत्तम पदार्थ देती है, जो माता के दूध के बाद सर्वश्रेष्ठ आहार माना जाता है। किस जाति, धर्म या संप्

गाय, गोपाल, गीता, गायत्री तथा गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण हैं

गौमाता में हैं समस्त तीर्थ
गाय, गोपाल, गीता, गायत्री तथा गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण हैं, आधार हैं। इनमें मैं गौमाता को सर्वोपरि महत्व है। पूजनीय गौमाता हमारी ऐसी माँ है जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकता है और न कोई तीर्थ। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता।

जब सबको दूध पिलाया, मैं गौ माता कहलाई,

ए हिंद देश के लोगों, सुन लो मेरी दर्द कहानी।
क्यों दया धर्म विसराया, क्यों दुनिया हुई वीरानी।

जब सबको दूध पिलाया, मैं गौ माता कहलाई,
क्या है अपराध हमारा, जो काटे आज कसाई।
बस भीख प्राण की दे दो, मै द्वार तिहारे आई,
मैं सबसे निर्बल प्राणी, मत करो आज मनमानी॥

जब जाउँ कसाईखाने, चाबुक से पीटी जाती,
उस उबले जल को तन पर, मैं सहन नहीं कर पाती।
जब यंत्र मौत का आता, मेरी रुह तक कम्प जाती,
मेरा कोई साथ न देता, यहाँ सब की प्रीत पहचानी॥

गौ - चिकित्सा भाग - 8 ( धनुर्वात )

धनुवति , धनुर्वात ================= इस रोग में पशु बहुत अधिक सुस्त रहता है । कोई पशु लकड़ी की तरह अकड़ जाता है । और पाँव ज़मीन पर ठोंकता रहता हैं ।वह गर्दन घुमाता रहता है । इस रोग में पशु भड़कने जैसा मालूम होता है । उस की साँस तेज़ चलती हैं । साधारण : दस्त भी बन्द हो जाते हैं । बछड़ों को यह रोग होने पर वे दूध पीना बन्द कर देते हैं । पशु आधे - आधे घन्टे तक बेहोश रहते हैं । जिस ओर पशु पांँव ठोंकता हैं , उस ओर की चमड़ी के बाल भी निकल जाते हैं । १ - औषधि - चन्द्रशूर ( अलासिया ) ६० ग्राम , गरम पानी ५०० ग्राम , काला नमक १२ ग्राम , नमक और चन्द्रशूर को बारीक पीसकर , गरम पानी में उबालकर , काढ़ा बनाक

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