आर्य मात्र गाय का पालन करते थे, तब पृथ्वी पर उन्हीं की सत्ता थी।

आर्य मात्र गाय का पालन करते थे, तब पृथ्वी पर उन्हीं की सत्ता थी।

ईश्वर ने हरेक प्रजा को भले ही फिर वह भारतीय हो, अफगानिस्तानी हो या यूरोपीय हो, शारीरिक और बौद्धिक शक्ति बराबर दी है। इस सम्पत्ति को मानव स्वयं के कर्म से घटा—बढ़ा सकता है। जिस प्रजा या मानव में यह सम्पत्ति अधिक है व मानव अथवा प्रजा कम संपत्ति वाले मानव या प्रजा पर राज्य करते हैं। रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथ इसके साक्षी हैं कि उस समय जब आर्य मात्र गाय का पालन करते थे, तब पृथ्वी पर उन्हीं की सत्ता थी। इतिहास देखने से यह भी ज्ञात होता है कि लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व भारत में भैंस का आगमन हुआ और उसके दूध, घी के सेवन से भारतीयों के बुद्धि, बल, विवेक तथा शांति का विनाश होता चला गया। इसके बाद भारतीय अफगानिस्तानी, मुस्लिम और अंग्रेजों से पराधीन होते रहे। यूरोप में भैंस के दूध का सेवन कभी नहीं होता है। गाय के दूध व उससे बनी वस्तुओं का ही सेवन होता है क्योंकि वे गाय के गुणों से सुपरिचित हैं जबकि दूसरी ओर भारत में स्थिति यह है कि आज खेती के सारे संसाधन गांवों से निकल रहे हैं। खेती के लिए खाद, बीज, पानी, बिक्री के लिए बाजार सब सरकार के हाथों में केन्द्रित हो गये हैं। महंगाई के आगे किसान घुटने टेक चुका है इसीलिए बैल की अच्छी कीमत जब मांस का व्यापारी उनके सामने फेंकता है तो वे लालच या लाचारी में उसे बेच देता है। आज गांव में बैल की कीमत आसमान छू रही है। उसे कौन खरीदे और कौन पाले? जब किसान को बैलों की आवश्यकता होती है तो वह गांव के भूपति से जो चार बैलों की हैसियत रखता हे, किराये पर ले लेता है। इसी कारण गाय जैसे उपयोगी पशु कत्लखाने की ओर जा रहे हैं। गौवंश की हत्या का सवाल वर्षों से उलझा हुआ है। इस समय देश में गोमांस का निर्यात करके अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा कमाने की दौड़ चल रही है। इस कारण सरकार ने भी बड़े बड़े कत्लखाने बनवाये हैं। बंबई का देवनार कत्लखाना एशिया में अपने ढंग का सबसे बड़ा कत्लखाना है।

यहाँ के मांस के सबसे बड़े ग्राहक अरब देश हैं। गोमांस की कीमत २५०/ रु. प्रति किलो तक बताई जाती है। इन कत्लखानों में जानवरों को कत्ल करने के कुछ कानून बनाये गये हैं परन्तु इन कानूनों का कितना पालन हो रहा है, इसको कोई व्यक्ति किसी भी कत्लखाने के मुख्य द्वार पर खड़े होकर देख सकता है। अगर यही क्रम चलता रहा तो हमारी दूध देने वाली ९०% गायेेंं खत्म हो जायेंगी और दूध का उत्पादन ७०% कम हो जायेगा। बंबई, कलकत्ता और मद्रास जैसे शहरों में ५० हजार से ज्यादा उपयोगी व कम उम्र के पशुओं का कत्ल होता है क्योंकि सरकार इस योजनावधि में ५०० करोड़ रुपये का मांस निर्यात करना चाहती है।

विदेशी लोगों की कूटनीति तो देखिए कि वे गाय के दूध को पीने के लिये गायों को हमारे यहाँ से ले गये और अब गाय के मांस को खाने के लिये हमसे ही हमारी गायों को कत्ल करवाकर मांस आयात कर रहे हैं। अगर ऐसी ही स्थिति रही तो भविष्य मेें भारत के बच्चे गाय को प्राणी संग्रहालयों में ही देख पायेंगे। यह हमारे लिये कितने शर्म की और त्रासदी की बात है। इसे देखकर तो रघुवंश की यह उक्ति याद आती है जिसे गाय की रक्षा के लिये अपने आपको समर्पित करने वाले महाराजा दिलीप ने कहा है कि—

अल्पस्य हे बहुहातुमिच्छन् विचारमूढ: प्रतिभासि मे त्वम्।।

अर्थात् छोटी से छोटी चीज के लिये बहुत बड़ा लुटा देने वाले विचारमूढ़ होते हैं।

यह विचारमूढ़ता ही है कि जो वृहद् मुंबई नगरपालिका द्वारा संचालित देवनार बूचड़खाने में प्रतिवर्ष १८० करोड़ रुपये मूल्य का पशुधन काटा जा रहा है। यदि ये काटना बन्द हो जाये तो ३ लाख ७० हजार टन अनाज,१० लाख टन चारा,३० लाख टन खाद, २० करोड़ ५७ हजार टन दूध और ९ लाख ८० हजार लोगों को रोजगार मिल सकता है।

अपने देश के कृषकों की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी तो ही हम समय के साथ दौड़ सकेंगे। किसानों के पास उत्तम बीज खरीदने हेतु पर्याप्त धन होगा, जमीन के लिये छोटे—छोटे टुकड़ों में गहन खेती करने हेतु पर्याप्त भोजन होगा तभी तो बढ़ती जनसंख्या का भार वे उठा सकेंगे। गोपालन को प्रत्येक किसान पूरक व्यवसाय के रूप में अपनायेगा तो उसकी समस्त समस्याओं का समाधान हो जायेगा तथा देश की आर्थिक स्थिति को भी सुदृढ़ बना सकेगा।

अत: ग्राम एवं राष्ट्रीय विकास के लिये अधिष्ठान रूप गोवंश का सार्थक उपयोग करें ताकि कुपोषण रुके, पौष्टिक अनाज, स्वस्थ पर्यावरण, स्थानीय उद्योग बढ़े और पुरुषार्थ प्रकट हो।

कु.जया पटेल