गाय को “गोधन” कहा जाता रहा है

गाय को “गोधन” कहा जाता रहा है

भारतीय विज्ञान की दिशा अंदर से बाहर की ओर है । आधुनिक विज्ञान बाह्य घटनाओं के निरीक्षण व प्रयोग के द्वारा उसमें छिपे सत्य को पहचानने का प्रयत्न करता है । हिन्दू विज्ञान सूक्ष्म से स्थूल की ओर ले जाता है तो आधुनिक विज्ञान ठोस स्थूल के माध्यम से विश्लेषण व निष्कर्ष की विधि द्वारा सूक्ष्म को पकडने का प्रयास कर रहा है । इस मूलभूत भेद को समझने से हम भारतीय वैज्ञानिक दृष्टि का सही विकास कर सकते हैं । फिर हम अपने अज्ञान के कारण ॠषियों द्वारा स्थापित परम्पराओं को अन्धविश्वास के रूप में नकारने के स्थान पर उनमें छिपे गूढ तत्व को समझने का प्रयत्न करेंगे । गाय को भारतीय जीवन में दिये जाने वाले महत्व को भी इसी श्रद्धात्मिका दृष्टि से समझा जा सकता है ।

निश्चित ही कृषिप्रधान राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का केन्द्रबिन्दू होने के नाते गाय को “गोधन” कहा जाता रहा है । वैदिक काल में इसके वास्तविक धन के रूप में प्रचलित होने की भी सम्भावना है । किसी चलन के समान सम्पदा के मापन का एक आधार गायों की संख्या रहा है । जिसके पास अधिक गायें होंगी वह अधिक सम्पन्न माना जाता रहा है । ऊर्जा एवं उत्पादकता के रूप में पूर्ण उपयोगिता इस आर्थिक महत्व का एक कारण निश्चित ही रहा होगा । गाय द्वारा प्रदत्त दूध, दही, माखन व घी जैसे पौष्टिक उत्पादों, यांत्रिक ऊर्जा के रूप में गोवंश की उपयोगिता के साथ ही गाय के विसर्जन, गोबर व गोमुत्र भी कृषि कार्य में खाद व कीटनाशक के रूप में अत्यन्त उपयोगी होते हैं । गोबर आज भी ग्राम्य भारत में ईंधन का सबसे पवित्र स्रोत है । इस प्रकार गाय अपने पूरे जीवन पर्यन्त मानव के उपयोगी रहने के बाद मृत्यु के पश्चात भी गोचर्म के द्वारा पदवेश, कवच आदि विभिन्न उत्पादों से मानव की रक्षा का कार्य करती है । गाय की इस सर्वांगीण उपयोगिता से ही उसे गोधन माना जाता है ।