धेनु: सदनम् रचीयाम्

धेनु: सदनम् रचीयाम्

आज यत्र—तत्र—सर्वत्र शाकाहार की चर्चा है किन्तु धर्मप्राण देश भारत, जहां की संस्कृति में गाय को माता तुल्य आदर प्राप्त है, वहां मांसाहार तथा मांसनिर्यात हेतु गो हत्या अत्यन्त शर्मनाक है। अहिल्या माता गोशाला जीव दया मण्डल ट्रस्ट द्वारा आयोजित इस निबन्ध प्रतियोगिता में सम्पूर्ण देश से ५६ प्रविष्टियाँ प्राप्त हुर्इं थीं। निर्णायक मण्डल ने कु. पटेल के आलेख को प्रथम घोषित किया। जनरुचि का विषय होने तथा शाकाहार के प्रचार में महत्वपूर्ण होने की दृष्टि से अर्हत् वचन के पाठकों के लिये यह आलेख प्रस्तुत है।

धेनु: सदनम् रचीयाम्’’ (अर्थववेद—११.१.३४)

अर्थात् ‘‘गाय संपत्तियों का भण्डार है।’’

भारतदेश आंरभ काल से ही कृषि प्रधान देश रहा है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नींव पर खड़ा हुआ है, जिसकी ८०% जनता किसान एवं मजदूर है,जो अधिकांशत:गांवों में निवास करती है। गाय को केन्द्र में रखकर देखें तो गांव की तस्वीर कुछ ऐसी बनती है:—

गाय—बैल से जुड़ा हमारा छोटा किसान, किसान से जुड़ी खेती और खेती से जुड़ी देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था। यह देश इसी ग्रामीण अर्थरचना की नींव पर खड़ा है जिसकी प्रथम कड़ी गाय है।

औद्यौगिकीकरण की आंधी अभी तक इस ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पूरी तरह उखाड़ नहीं पायी थी किन्तु नई आर्थिक नीति के कारण ग्रामीण अर्थनीति को खतरा पैदा हो गया है। ये अपनी विशाल पूंजी और अचूक प्रचारशक्ति से शीघ्र ही भारतीय बाजारों पर पूर्ण अधिकार कर लेंगे और भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने में आत्मसात कर लेंगे। इस विषम परिस्थितियों में गोरक्षा नई जीवन पद्धति को दृष्टि दे सकती है। पूरी अर्थव्यवस्था के परिवर्तन की व्यापक मांग का गाय एक प्रतीक है। उसे ‘गाय बचाओ’ के रूप में देखने जैसा है। गाय भारत की आत्मा है। शरीर में जितना महत्व आत्मा का है वही महत्व गाय का भारत के जीवन में आदिकाल से रहा है और आज भी है| अभ्युदय (सांसारिक सुख समृद्धि) और नि:श्रेयस (मोक्ष) दोनों की प्राप्ति के लिए लोग इसे एक प्रधान कारण मानते हैं। राष्ट्र की उन्नति, अवनति, स्वतंत्रता और परतंत्रता सभी की कल्पना गाय की स्थिति से की जा सकती है। यह हमारे आर्थिक जीवन की ही नहीं, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं सामाजिक जीवन की भी आधारशिला रही है। हिन्दू परम्परानुसार ३३ करोड़ देवताओं का वास स्थान होने के कारण वह हमारी श्रद्धा और पूजा का स्थान तथा गोमाता के रूप मेें हमारी ममता और वत्सलता का भी स्रोत है। राष्ट्र के मानचिन्हों में उसका स्थान सर्वोपरि नहीं तो अद्वितीय अवश्य ही है।

गाय संपूर्ण भारत की एकता की द्योतक है। गौमाता भारत के प्रत्येक व्यक्ति के लिये, फिर वह किसी भी धर्म या संप्रदाय का क्यों न हो, समान रूप से मान्य है। इसी संदर्भ में सूफी संत अब्बूल शाह, वीर तेजाजी एवं शिवाजी की गोभक्ति एवं प्रेम से सभी वाकिफ हैं इसीलिए ‘गाय’ का हमारी मान्यताओं में सदैव से विशेष स्थान रहा है। भारतीय विधान की धारा ४८ में भी गोरक्षण तथा गोसंवर्धन की नीति स्वीकार की गई है।

वेदों में भी इसकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि-

‘‘माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसाऽऽदिव्यानाम मृतस्य नाभि:।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट।।’

अर्थात् गाय रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन और धृतरुप अमृत का खजाना है। गाय परोपकारी एवं वध न करने योग्य है। अथर्ववेद के मंत्रों में भी कहा है कि गाय घर को कल्याण का स्थान बनाती है एवं मनुष्य का पोषण करती है। गाय को ही संपत्ति माना गया है तभी तो भारतीय राजाओं की गोशालाऐं असंख्य गायों से भरी रहती थीं।

गोपालन की प्रवृत्ति एवं महत्व:— कौटिल्य के अर्थशास्त्र को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय गायों की समृद्धि और स्वास्थ्य के लिये विशेष विभाग ‘‘गोऽअध्यक्ष’’ चलाने में आता था। भगवान श्रीकृष्ण के समय भी गायों की अधिक संख्या सामाजिक प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य का प्रतीक मानी जाती थी। नंद, उपनंद, नंदराज, वृषभानु, वृषभानुवर आदि उपाधियां गोसंपत्ति के आधार पर ही दी जाती थीं। श्रीकृष्ण गाय के असंख्य गुणों को जानते थे और इसी कारण गाय उन्हें अत्यंत प्रिय थी एवं वे उनका पालन करते थे और इसी कारण उनका प्रिय और पवित्र नाम गोपाल ही है। गोधन को सर्वोत्तम धन मानने के कारण ही ब्राह्मण की सबसे बड़ी दक्षिणा ’’गाय’’ मानी जाती रही है।

गर्ग संहिता गोलोक—खण्ड अध्याय—४ में लिखा है:— जिस गोपाल के पास पाँच लाख गाय हों उसे उपनंद और जिसके पास नव लाख गायें हो उसे नंद कहते हैंं। दस हजार गायों के समूह को व्रज अथवा गोकुल कहने में आता था।

इससे ये बात तो स्पष्ट हो जाती है कि ‘गाय’ द्वापर युग से ही हमारे अर्थतंत्र का मुख्य आधार रही है।

युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न ‘‘अमृत किम् ?’’ (अमृत क्या है?) के उत्तर में ‘‘गवाऽमृतम्’’ (गाय का दूध) कहा था।

गांधीजी ने भी लिखा है कि ‘‘देश की सुख—समृद्धि गाय के साथ ही जुड़ी हुई है।’’ ये बात अनेक प्रकार से सार्थक है और इसी कारण ही संसार से विरक्त हुए सोने चाँदी के भण्डार को ठुकरा कर जंगल की शरण लेने वाले ऋषियों और महाराजाओं ने सर्वस्व के त्याग में भी ‘‘गाय’’ का त्याग नहीं किया था।

अंग्रेजों ने देखा कि हमारा देश संपन्न है और यहां के लोग बौद्धिक दृष्टि से भी तेज हैं इसलिए अंग्रेजों ने हमारी ‘गाय’ को नष्ट कर दिया। वह ऐसे ही था कि जैसे किसी कार के पहिये की हवा निकाल दे तो कितनी भी बढ़िया कार हो, रुक जाती है। यही हालत हमारे देश की कर दी। हमारे देश से गाय गई, देश की कृषि पंगु हुई और सारे देश के लघु व कुटीर उद्योग खत्म हो गये। देश से बुद्धि गई और यहां पर चाय, काफी व शराब आ गई।

आप जानते हैं कि जो पशु सूर्य की किरण को सर्वाधिक आत्मा में ग्रहण करता है, वह है ‘गाय’ और यह पशु दूध के माध्यम से हमें भरपूर सौर ऊर्जा देता है और यदि इस दूध को हम पीते हैं तो उससे हमारी बुद्धि तेज होगी और हमारी अर्थव्यवस्था पर इसका धनात्मक प्रभाव जरूर पड़ेगा। आज पश्चिम के देश क्यों उन्नति कर रहे हैं? यह कभी सोचा? पश्चिम में आप चले जाइये, कहीं आपको भैंस नहीं मिलेगी, सर्वत्र आपको गाय मिलेगी। पिछले १८ वर्षों से पश्चिमी देशों में एक श्वेत क्रांति चल रही है, उस क्रांति का उदृेश्य है, अधिक से अधिक गाय पालो, गाय के दूध और दूध से बने पदार्थों का सेवन करो। आज एक अमेरिकन व्यक्ति प्रतिदिन एक से दो लीटर गाय का दूध पीता है व मक्खन खाता है जबकि भारतीय व्यक्ति को औसतन मात्र २०० ग्राम दूध भी मुश्किल से प्राप्त होता है। अमेरिकन व्यक्ति का आहार आप देखिये, सारा का सारा सात्विक होता जा रहा है और भारतीय तमोगुणी पदार्थों को अपनाकर अपनी बुद्धि एवं अर्थव्यवस्था को विकृत कर रहे हैं। ये हमारी स्थिति है कि एक ओर हम गाय और उसके दूध से बने पदार्थों से दूर होते जा रहे हैं और दूसरी ओर श्रीकृष्ण के नारे लगाते हैं, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं और जो लोग कृष्ण जन्माष्टमी नहीं मानते वे लोग गाय का दूध पीकर श्रीकृष्ण का अनुसरण कर रहे हैं। जबकि प्रथम बार कोलम्बस १४९२ में अमेरिका गया था तब वहाँ एक भी गाय नहीं थी। मात्र जंगली भैसों का पालन होता था। लोग उसे दुहते नहीं थे परन्तु मांस और चमड़े के लिये उसकी हत्या करते थे। कोलम्बस दूसरी बार अमेरिका गया तब अपने साथ चालीस गायों तथा दो साण्डों को अपने साथ ले गया, जिससे दूध की जरूरत पूरी हो सके। १६४० में ४० गायें बढ़कर ३०,००० हो गयीं और १८४० में ड़ेढ करोड़ और सन् १९०० में ४ करोड़ हो गईं। १९३० में ६ करोड़ ४० लाख हो गयीं तथा सन् १९३५ में (मात्र पांच वर्ष में) बढ़कर ७ करोड़ १८ हजार हो गयीं। तब वहां सन् १९८५ में ९४% लोगों के पास गायें थीं तथा हरेक किसानों के पास दस पंद्रह तक गायें थीं।(आर्य जगत—८ अगस्त ९३)

इसी कारण आज अमेरिका में गाय का दूध ऐसे है जैसे भारत में कभी दूध की नदियां बहती थीं, आज अमेरिका के अंदर दूध की नदियां बह रही हैं। वे घी को जला रहे हैं क्योंकि उनको पता चल चुका है कि गाय के घी को जलाने से प्रदूषण नष्ट हो जाता है। वाशिंगटन से २५० किलोमीटर की दूरी पर सन् १९७८ से यज्ञ चल रहा है जहाँ ‘‘परनाले’’ के समान घी गिरता है और जलता है। इससे वाशिंगटन का प्रदूषण दूर किया जा रहा है परन्तु इसका विज्ञापन इसलिए नहीं होता क्योंकि उनकी ईसाई संस्कृति मार खा जायेगी, यदि इस गाय के घी की महत्ता को वे लोग प्रसारित करें। (आर्य जगत, अगस्त ९३)